Sunday, April 11, 2010

सांवरी ...


सांवरी तू
बावरी तू
मन भा रही
तू छा रही

सपनो में मेरे
क्यों तू है आये
झुरमुट में छिप के
गीत गुंजाये
माथे पे लगती है
लाल वो बिंदिया
अंखियो में काजल
काजल में निंदिया
जागा सा में हूँ
जागे ये रतिया
तेरा मुस्काना
तेरा इठलाना
फिर तेरा धीरे से
आँख चुराना

सांवरी तू
बावरी तू
मन भा रही तू
छा रही ...

सरपट से सरके
तेरी चुनरिया
तेरे वो गुंजन
भाते है इस मन
मुझसे वो तेरा
नज़रें चुराना
फिर तेरा यादों से
ओझल हो जाना
बारिश की बूंदों में
पलके झपकाना
फिर अपनी चुनर से
खुद को छिपाना
हाथों में कंगन
और पायल की छन छन

सांवरी तू
बावरी तू
मन भा रही तू
छा रही ..

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