Wednesday, September 29, 2010
कौन है वो --2
एक अधूरी कविता ...
Tuesday, July 20, 2010
सपना मेरा ...
संजोया भी
छिपाया भी
पर आखिर टूट गया
सपना मेरा
पिंजरे में बंद
छटपटाता
कुछ कहता था मुझसे रोज़
बातें करता था
मुझसे
पर आखिर छूट गया
सपना मेरा
देखूंगी स्वप्न सतरंगी
सोचा था
पर सब ने
पल पल
उसको नोचा था
आखिर हिम्मत हार गया
सपना मेरा
हार गया
और हारी में ....
Sunday, July 18, 2010
बाहर और भीतर .....
बाहर और भीतर
झूझती खुद से
और फिर थक जाती
फिर भी रोज़
सुबह उठ जाती
जब सूरज भी अलसाया रहता था
नभ भी तारों की चादर ताने
सोया करता था
तब से ले कर
रात्रि के प्रथम प्रहर तक
रोज़ मरती थी वो
बाहर और भीतर
टूटा करती थी
कतरा कतरा
समेटती थी खुद को
फिर से धौकनी उठाये
चूल्हा फूकती
आटा गूंथती
आँगन लीपती
चावल बीनती
थी वो
थक कर नहीं बैठती थी
कभी भी
हाँ कभी भी
मैंने नहीं देखा
पर मैंने देखा की
मेरे उठने से पहले
परछाई उसकी
आँगन में टहले
सोने के बाद भी मेरे
रुकते न थे उसके फेरे
फिर कब सोती थी वो
आखिर कब रोती थी वो
रोज़ बस
मरती थी बाहर और भीतर
उंगली पर रोज़
गिनती थे दिन
और
रात
वो तो होती ही न थी उसकी
पर
उस रात
ख़तम हो गए उसके दिन
और
उसकी बाहर और भीतर की जंग
बहा बस थोडा लाल रंग
बाहर कुछ लोग
भीतर थी वो
मर गयी
भीतर ही भीतर ....
भीतर ही भीतर ....
Wednesday, July 14, 2010
अस्मत ...
उस दिन
Friday, June 25, 2010
याद....( ग़ज़ल)
कभी राहगीर तो कभी रहगुज़र बन आई
हम आज भी तेरा इंतज़ार करते हैं
तेरे हर ख्याल पे क्यों ये आँख भर आई
इक अरसा हो गया है तुमसे बिछड़े हुए अब तो
न तुम आई न तेरी कोई खबर आई
दरवाज़ा अब भी तेरी राह तकता है
इंतज़ार में दिन बीते रात अक्सर उतर आई
शायद मुझ को मालूम न था कुछ भी
तेरे जाते ही मेरी हर दुआ बेअसर बन आई
तू मुझसे दूर रह के भी मेरे ही पास रहती है
अब हर शब् भी तेरे जाने पे सेहर बन आई
कुछ लोग कहते हैं की में "बावला" सा हूँ
न जाने क्यूँ तेरे आते ही ये रंगत निखर आई
इक झलक तेरी देखे ज़माना हो गया है अब
दिन में साँसे चलती हैं यादें रात भर आई
यादें रात भर आई ....
यादें रात भर आई ....
Sunday, April 18, 2010
तुम ३

तेरी आँखों
की शर्म
वो धीरे से उंगली
के छोर से
चेहरे पर आते बालों
का कान के पीछे
रखना और फिर
वो हलके से किताब
के पन्नो
का पलटना
तेरा वो आँखों का उठाना
और हमारी नज़र का मिलना
बस इस ही मिलन
के लिए तो
मैं अपलक तुझको
देख रहा था
तब से पथरायी
इन आँखों को
सुकून अब मिला है
तुम क्या समझोगी
मेरी वेदना
जो मेरे अन्दर ही
तब से पल रही है
जबसे तुम आई थी
अब इस मिलन के बाद
फिर तुमने अपनी
आँखे झुका ली
उस बीच एक सदी बीत गयी
अब तो बस
साँसे चल रही है
धीरे धीरे
मद्धम मद्धम
वो भी साथ छोड़
देंगी जो
आती है तेरी महक ले के
अपने संग
कम होती लगती है
दूरी अपनी
और साँसे मेरी
...............................
Friday, April 16, 2010
तुम्हारे लिए ...

बहुत दिन हुए तुम्हे लिखे
सो सोचा की आज लिखू
कैसी हो प्रिये ??
सोचा दो बातें तुमसे ही कर लू
जो अधूरी रह गयी थी
सब कुछ अपना
जो तुम्हारा ही है
कलम से बान्ध कर
श्याही में डुबो के
पन्नो में लिख
इस ख़त में तुम्हे भेज रहा हूँ
संभाल के रखना
मेरा ये पत्र
आज तुम्हे में लिख रहा हूँ
उन नदियों की कल कल
जो तेरे जाने पे बहती नहीं
तेरे जाने पे गाती न चिडिया है
न नैया चलती है
पवन जो सुरमई गीत सुनाती थी
आज मौन नज़र वो आती है
तुम्हे लिखने से पहले क्यूँ काँप उठता हूँ मैं
पवन के झोंको में
जैसे मनो कोई सूखा टूटा पत्ता
गर्म लू के थपेड़ो में उढ़ता
तुमको पता है
रोज़ जब तुम्हे लिखने को बैठता हूँ
कलम उठता और
तेरा मुस्काता चेहरा सामने आ जाता
फिर तेरा मुझे वो रिझाना याद आता है
क्या तुम्हे नहीं आती ये सब यादें ???
समझो मेरी ह्रदय वेदना
तुम कहाँ हो प्रिये ...
बताओ तो सही
ये सांझ तुम्हारे जाने पे मुझसे रूठी क्यू है
क्यूँ है ये चन्द्रमा पानी में हिलता
चुप है अब
जब तुम रहती थी बातें करता था मुझसे
उस दूर सूखती तेरी चुनरी को देखता मैं
फिर आती तेरी याद
ध्योधी पर बैठ
जब शाम को ढलते देखता
तो दो आंसू सहसा आँख के कोने से रिस जाते
फिर आती हो तुम याद
तुमसे कहा था मैंने की
इन यादों को भी ले जाओ उस बस्ते में
जिस में मेरी सारी दुनिया
मेरी खुशियाँ जो की तुम हो
ले जा रही हो
अपने संग
सारे रंग
क्यूँ तुम आज जा रही हो
फिर उस बसंती बयार के संग
आया तेरा ख़त
मिटटी की सौंधी महक संग
आ रही हो तुम भी
मन मेरा आल्हादित हो
लिखने को बोला
सो लिखा ये पत्र तुम्हे
यूँ ही ट्रेन की खिड़की पर
यूँ ही बैठे बैठे
आ रहा हूँ तुमको मैं लेने
........................................ तुम्हारा अनन्य ...............................................................
Sunday, April 11, 2010
सांवरी ...
सांवरी तू
बावरी तू
मन भा रही
तू छा रही
सपनो में मेरे
क्यों तू है आये
झुरमुट में छिप के
गीत गुंजाये
माथे पे लगती है
लाल वो बिंदिया
अंखियो में काजल
काजल में निंदिया
जागा सा में हूँ
जागे ये रतिया
तेरा मुस्काना
तेरा इठलाना
फिर तेरा धीरे से
आँख चुराना
सांवरी तू
बावरी तू
मन भा रही तू
छा रही ...
सरपट से सरके
तेरी चुनरिया
तेरे वो गुंजन
भाते है इस मन
मुझसे वो तेरा
नज़रें चुराना
फिर तेरा यादों से
ओझल हो जाना
बारिश की बूंदों में
पलके झपकाना
फिर अपनी चुनर से
खुद को छिपाना
हाथों में कंगन
और पायल की छन छन
सांवरी तू
बावरी तू
मन भा रही तू
छा रही ..