Wednesday, September 29, 2010

कौन है वो --2

हर रोज़ उसे मैं देखता हूँ
आँखें नीचे
बाल संभाले
अपने अंगो को
ध्यान से धाके
मुह सिये
चुपचाप जिए
वो कौन है
कौन है वो
क्या वो माँ बन पाएगी
??
क्या वो औरत कहलाएगी
??
वह तो है बस बच्चा जनने की
एक मशीन
न है माता
न है गृहणी
न है पत्नी
है तो बस
एक मशीन
जिसके पुर्जे ढीले पड़े तो
रखो किसी स्टोररूम में
जब एक नयी मशीन
उसकी जगह न ले ले
बाज़ार सजा है मशीनों से
गोरी
काली
गाने वाली
चौका बर्तन करने वाली
पौडर लिपस्टिक और है लाली
जब तक दमकता है चेहरा
तब तक काम की लगती है
झुरियों वाली मशीन भला किसे पसंद है
पड़ी रहे किसी स्टोररूम में
आँखे मूंदे
न है माता
न है गृहणी
न है पत्नी
है तो बस
एक मशीन
जो बच्चा जने
बिस्तर सेके
रोटी बनाये
पिरस खिलाये
लात भी कहए
चलती जाए
थक हार के फिर से
मन बहलाए
चलती जाए
चलती जाए
कौन है वो
औरत अबला नारी
या एक
"मशीन"
........

एक अधूरी कविता ...

मेज़
पर पड़ी ...
टूटी हुई सेठी की कलम
वो आधी बिखरी श्याही की दवात
कुछ पन्ने ईंट से दबे
कुछ फडफडाते- छटपटाते
मेरी तरह
कुछ फडफडाते- छटपटाते
मेरी तरह
रुके है अब भी
आँखों में आंसू
और अधरों पे शब्दों की तरह
एक अधूरी कविता
पूरी करनी है
पर लालटेन आखिरी सांसें ले रही है
मेरी तरह
मरने से पहले मुझमे सहस आया
लौ ने भी साथ निभाया
कलम थामा
चाभी का एक पुराना छल्ला
लटका था सिरहाने
कुछ चाभियाँ
शायद कोई राज़ खोले
एक टूटी ऐनक
जो टिकी रहती थी कानो के सिरहाने
कुछ टूटे पैसे बिखरे
शायद मेरे टूटे बिखरे
सपने खरीदे
कलम थमा
बस लिखा
क्या
??
"माँ"
....

Tuesday, July 20, 2010

सपना मेरा ...

बड़े जतन से पाला था उसको

संजोया भी

छिपाया भी

पर आखिर टूट गया

सपना मेरा

पिंजरे में बंद

छटपटाता

कुछ कहता था मुझसे रोज़

बातें करता था

मुझसे

पर आखिर छूट गया

सपना मेरा

देखूंगी स्वप्न सतरंगी

सोचा था

पर सब ने

पल पल

उसको नोचा था

आखिर हिम्मत हार गया

सपना मेरा

हार गया

और हारी में ....

Sunday, July 18, 2010

बाहर और भीतर .....

वो रोज़ मरती थी
बाहर और भीतर
झूझती खुद से
और फिर थक जाती
फिर भी रोज़
सुबह उठ जाती
जब सूरज भी अलसाया रहता था
नभ भी तारों की चादर ताने
सोया करता था
तब से ले कर
रात्रि के प्रथम प्रहर तक
रोज़ मरती थी वो
बाहर और भीतर
टूटा करती थी
कतरा कतरा
समेटती थी खुद को
फिर से धौकनी उठाये
चूल्हा फूकती
आटा गूंथती
आँगन लीपती
चावल बीनती
थी वो
थक कर नहीं बैठती थी
कभी भी
हाँ कभी भी
मैंने नहीं देखा
पर मैंने देखा की
मेरे उठने से पहले
परछाई उसकी
आँगन में टहले
सोने के बाद भी मेरे
रुकते न थे उसके फेरे
फिर कब सोती थी वो
आखिर कब रोती थी वो
रोज़ बस
मरती थी बाहर और भीतर
उंगली पर रोज़
गिनती थे दिन
और
रात
वो तो होती ही न थी उसकी
पर
उस रात
ख़तम हो गए उसके दिन
और
उसकी बाहर और भीतर की जंग
बहा बस थोडा लाल रंग
बाहर कुछ लोग
भीतर थी वो
मर गयी
भीतर ही भीतर ....
भीतर ही भीतर ....

Wednesday, July 14, 2010

अस्मत ...

वो फटे दुप्पटे से
वो फटे दुप्पटे से
अपनी छाती छिपाए
कभी पूरी कभी आधी छिपाए
इधर उधर भागे
भूखे कुत्ते से सब उसको ताके
कोई चेहरे पे मारे हाथ
कोई करता उसके स्तनों पे वार
बिखरे बाल
बिगड़ा हाल
चार टूटी चूड़िया
सिन्दूर की बेतरतीब लकीरें
हाथों से वो आँखों के आंसू पोंछे
भूखे भेड़िये उसे पल पल नोचे
हर आहट पे वो अब भी घबराये
जो भी आँचल पाए छिप जाए
फटे दुप्पटे से ही वो खुद को ढाके
फिर भी अब तक उसकी रूह काँपे

चेहरे पे नाखून
चेहरे पे नाखून
उससे बहता खून
उसकी कहानी बतलाये
कौन है वो
कौन है वो
क्यों वो लजाये

उस दिन

आज चाँद
ढूध के कटोरे सा लग रहा है
कुछ बादलों के पीछे से झांकता
मनो
तुम खुद ओट के पीछे से देखती मुझे
अपने केश भिगोये

ये सब तारे
जो आज नभ में
चमक रहे हैं
जैसे तू मुस्काती
या किसी ने काली चादर पर मोती
चुन चुन के पिरोये

चिड़िया जो गाती ये
सुरमई सब गीत
पवन के झोंको में पत्ते सरसराते
फिर दिलाते तेरी याद
मै देखता तेरी राह
आंखें ये भिगोये

पर अब
चाँद छिपा
तारे दुबे
पंची चुप
पवन रुक
क्यूँ गयी है
मनो सब हैं अब आँख मूंद कर सोये

Friday, June 25, 2010

याद....( ग़ज़ल)

इक रात यूँ ही बैठे तुम नज़र आई
कभी राहगीर तो कभी रहगुज़र बन आई
हम आज भी तेरा इंतज़ार करते हैं
तेरे हर ख्याल पे क्यों ये आँख भर आई

इक अरसा हो गया है तुमसे बिछड़े हुए अब तो
न तुम आई न तेरी कोई खबर आई
दरवाज़ा अब भी तेरी राह तकता है
इंतज़ार में दिन बीते रात अक्सर उतर आई

शायद मुझ को मालूम न था कुछ भी
तेरे जाते ही मेरी हर दुआ बेअसर बन आई
तू मुझसे दूर रह के भी मेरे ही पास रहती है
अब हर शब् भी तेरे जाने पे सेहर बन आई

कुछ लोग कहते हैं की में "बावला" सा हूँ
न जाने क्यूँ तेरे आते ही ये रंगत निखर आई
इक झलक तेरी देखे ज़माना हो गया है अब
दिन में साँसे चलती हैं यादें रात भर आई
यादें रात भर आई ....
यादें रात भर आई ....

Sunday, April 18, 2010

तुम ३


झुकी झुकी सी
तेरी आँखों
की शर्म
वो धीरे से उंगली
के छोर से
चेहरे पर आते बालों
का कान के पीछे
रखना और फिर
वो हलके से किताब
के पन्नो
का पलटना
तेरा वो आँखों का उठाना
और हमारी नज़र का मिलना
बस इस ही मिलन
के लिए तो
मैं अपलक तुझको
देख रहा था
तब से पथरायी
इन आँखों को
सुकून अब मिला है
तुम क्या समझोगी
मेरी वेदना
जो मेरे अन्दर ही
तब से पल रही है
जबसे तुम आई थी
अब इस मिलन के बाद
फिर तुमने अपनी
आँखे झुका ली
उस बीच एक सदी बीत गयी
अब तो बस
साँसे चल रही है
धीरे धीरे
मद्धम मद्धम
वो भी साथ छोड़
देंगी जो
आती है तेरी महक ले के
अपने संग
कम होती लगती है
दूरी अपनी
और साँसे मेरी
...............................

Friday, April 16, 2010

तुम्हारे लिए ...


बहुत दिन हुए तुम्हे लिखे


सो सोचा की आज लिखू


कैसी हो प्रिये ??


सोचा दो बातें तुमसे ही कर लू


जो अधूरी रह गयी थी


सब कुछ अपना


जो तुम्हारा ही है


कलम से बान्ध कर


श्याही में डुबो के


पन्नो में लिख


इस ख़त में तुम्हे भेज रहा हूँ


संभाल के रखना


मेरा ये पत्र


आज तुम्हे में लिख रहा हूँ


उन नदियों की कल कल


जो तेरे जाने पे बहती नहीं


तेरे जाने पे गाती न चिडिया है


न नैया चलती है


पवन जो सुरमई गीत सुनाती थी


आज मौन नज़र वो आती है


तुम्हे लिखने से पहले क्यूँ काँप उठता हूँ मैं


पवन के झोंको में


जैसे मनो कोई सूखा टूटा पत्ता


गर्म लू के थपेड़ो में उढ़ता


तुमको पता है


रोज़ जब तुम्हे लिखने को बैठता हूँ


कलम उठता और


तेरा मुस्काता चेहरा सामने आ जाता


फिर तेरा मुझे वो रिझाना याद आता है


क्या तुम्हे नहीं आती ये सब यादें ???


समझो मेरी ह्रदय वेदना


तुम कहाँ हो प्रिये ...


बताओ तो सही


ये सांझ तुम्हारे जाने पे मुझसे रूठी क्यू है


क्यूँ है ये चन्द्रमा पानी में हिलता


चुप है अब


जब तुम रहती थी बातें करता था मुझसे


उस दूर सूखती तेरी चुनरी को देखता मैं


फिर आती तेरी याद


ध्योधी पर बैठ


जब शाम को ढलते देखता


तो दो आंसू सहसा आँख के कोने से रिस जाते


फिर आती हो तुम याद


तुमसे कहा था मैंने की


इन यादों को भी ले जाओ उस बस्ते में


जिस में मेरी सारी दुनिया


मेरी खुशियाँ जो की तुम हो


ले जा रही हो


अपने संग


सारे रंग


क्यूँ तुम आज जा रही हो


फिर उस बसंती बयार के संग


आया तेरा ख़त


मिटटी की सौंधी महक संग


आ रही हो तुम भी


मन मेरा आल्हादित हो


लिखने को बोला


सो लिखा ये पत्र तुम्हे


यूँ ही ट्रेन की खिड़की पर


यूँ ही बैठे बैठे


आ रहा हूँ तुमको मैं लेने



........................................ तुम्हारा अनन्य ...............................................................

Sunday, April 11, 2010

सांवरी ...


सांवरी तू
बावरी तू
मन भा रही
तू छा रही

सपनो में मेरे
क्यों तू है आये
झुरमुट में छिप के
गीत गुंजाये
माथे पे लगती है
लाल वो बिंदिया
अंखियो में काजल
काजल में निंदिया
जागा सा में हूँ
जागे ये रतिया
तेरा मुस्काना
तेरा इठलाना
फिर तेरा धीरे से
आँख चुराना

सांवरी तू
बावरी तू
मन भा रही तू
छा रही ...

सरपट से सरके
तेरी चुनरिया
तेरे वो गुंजन
भाते है इस मन
मुझसे वो तेरा
नज़रें चुराना
फिर तेरा यादों से
ओझल हो जाना
बारिश की बूंदों में
पलके झपकाना
फिर अपनी चुनर से
खुद को छिपाना
हाथों में कंगन
और पायल की छन छन

सांवरी तू
बावरी तू
मन भा रही तू
छा रही ..