Wednesday, July 14, 2010

उस दिन

आज चाँद
ढूध के कटोरे सा लग रहा है
कुछ बादलों के पीछे से झांकता
मनो
तुम खुद ओट के पीछे से देखती मुझे
अपने केश भिगोये

ये सब तारे
जो आज नभ में
चमक रहे हैं
जैसे तू मुस्काती
या किसी ने काली चादर पर मोती
चुन चुन के पिरोये

चिड़िया जो गाती ये
सुरमई सब गीत
पवन के झोंको में पत्ते सरसराते
फिर दिलाते तेरी याद
मै देखता तेरी राह
आंखें ये भिगोये

पर अब
चाँद छिपा
तारे दुबे
पंची चुप
पवन रुक
क्यूँ गयी है
मनो सब हैं अब आँख मूंद कर सोये

4 comments:

  1. कुछ तो है इस कविता में, जो मन को छू गयी।

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  2. बहुत पसन्द आया
    हमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद

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  3. Mere paas shabd nahi hain is kavita ki tareef karne ke liye....

    Sometimes you just want to feel the beauty of the poem and not destroy the ethereal bliss by putting your appreciation in words!

    This is exactly what i fell abt this poem.

    Keep up the exceptional work! :)

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