Wednesday, November 28, 2012

पिता को पत्र

पापा ....

आज बड़े दिन बाद तुम्हे लिखने को मन हुआ। मैं जानता हूँ की तुम ये पत्र नहीं पढोगे। और न ही ये पत्र किसी भी तरह तुम तक पहुचाया जा सकता है। पर आज लिख रहा उन बस इस लिए की यूँ ही तुम से बात  करने को मन हुआ और तुम मेरे पास नहीं हो पापा। तुम जानते नहीं हो पर तुम ही थे जो मुझे हमेशा समझ पाते थे। पर शायद मैं हइ तुम्हे नहीं समझ पाया। पापा तुम्हे पता है बड़े दिन हुए मैं खुल के हँसा नहीं। बड़े दिन हुए किसी ने "कैसे हो बेटू " नहीं कहा। बड़े दिन हो गए तुम्हारे फोने की दूसरी तरफ से तुम्हारी आवाज़ नहीं आई। आज समझ आया कितना मुश्किल होता हिया जीना उसके बिना जीना जिसे आप सबसे ज्यादा चाहते हो। मैं तुम्हे कभी बतला नही पाया पर सच कहूं बहुत  कुछ कहना था तुमसे पर एक दिन अचानक तुम मुझे छोड़ के चले गए ..... अचानक।   कभी भी ये अंदेशा तक नहीं था की तुम यूँ अचानक चले जाओगे। अभी कल ही की बात लगती है जब तुम घर पर अचानक हारमोनियम उठा के मुझे फ़ोन लगते थे, फिर चहचहाती हुई आवाज़ में कहते थे " अनन्य सुनो ये अभी अभी कंपोज़ किया है " और फिर अचानक एक सुरीला सा  गीत मेरे कानो में पड़ता था। 

मुझे अच्छे से याद है बलरामपुर अस्पताल में तुम्हारे साथ बिताये वो पल। और तुम्हारा वो गीत "दो रौशनी के चश्मे .... इस घर में बह रहे हैं।" पापा तुम्हारा अचानक यूँ ही चले जाना आज तक समझ नहीं आया। पर हाँ जानता हूँ तुम्हारी पीड़ा को भी जो तुमने अकेले ही सही थी। आज एक और बात बतानी है तुम्हे मैं हर रोज़ अपने इर्द गिर्दा कई लोगों को देखता हूँ। लोग जो जीवित हैं।लोग जो बात करते हैं। पर सच कहूँ ये सब बस जिंदा हैं। पर तुमने मुझे सिखाया है जिंदादिल रहना। पापा रह रह के तुम्हारी हर एक बात ज़हन में आ जाती है। रोज़ इश्वर से पूछता हूँ क्या कोई तरीका है की तुम वापस आ जाओ। पर कोई जवाब नहीं मिलता। कई सारे सवाल हैं। जिनके जवाब सिर्फ तुम्हारे पास हैं। इंतज़ार है तो उस दिन का जब हम दोनों दुबारा गले मिलेंगे। बस एक और बात है मुझे हर जनम में अपना ही बीटा बना के बुलाना। क्यूंकि तुमसे अच्छा पिता कोई और हो ही नहीं सकता। 

खैर ..

आगे और भी लिखूंगा ... 

अनन्य 

Saturday, October 20, 2012

मैं जिंदा हूँ

तुम्हारे होने का अहसास
मुझे जीवित रखता है ...
क्यूंकि
मैं जिंदा हूँ  ....


टूटी रीढ़ की हड्डी ...
बैसाखी के सहारे चलती
इस काय को संभाले
आगे बढ़ता मैं
क्यूंकि
मैं जिंदा हूँ  .....


तुम मुझे कुचल दो  ...
तुम मुझे अंधेरो में
कच्चे पथरीले रास्तो पे
अकेला छोड़ दो ...
जहां मैं खुद को भूल जाऊं ....
अँधियारा गहरा पाऊं
फिर भी कहूँगा ये .....
मैं जिंदा हूँ ......



तुमसे बिछड कर
मुझे सांस लेना मुश्किल लगता है ....
फिर भी
बस तुम्हारे लिए


मैं जिंदा हूँ .......

Monday, February 27, 2012

कैसे बताऊँ तुम्हें

तुम्हारे गीत को आवाज़ दूँ
या खुद को तुम्हारा
गीत बना लूँ मैं
जो तेरे होठों से होते हुए सीधे दिल में उतर जाऊं
कैसे कह दूँ वो सब अभी
जो वैसे कभी न कह पाऊं
कैसे बताऊँ तुम्हें
कितना तुम्हे मैं चाहूँ
धमनियों में जो रक्त प्रवाल्लित स्वर हैं
तुम्हे कैसे मैं सुनाऊँ
धड़कते दिल की धड़कन में तेरा नाम
तुम्हे कैसे मैं सुनाऊँ
हर इक सांस में तेरा अहसास
तुम्हे कैसे मैं जताऊँ
मेरे हर एक अश्क में भी तेरा ही अक्स
तुम्हे कैसे मैं दिखाऊँ
कैसे बताऊँ तुम्हें
कितना तुम्हे मैं चाहूँ
कैसे बताऊँ तुम्हें
कितना तुम्हे मैं चाहूँ


Thursday, August 4, 2011

टूटा मैं

टूटे हुए शाख के पत्ते से पुछा
की ज़मीं पर पड़ा तू..
तड़पता हिया
मचलता है
छटपटाता है
कभी तू भी हरा रहा होगा
हरे भरे
छतनार वृक्ष का एक हिस्सा होगा
तेरा भी कोई अपना किस्सा होगा
कभी तेरी भी डाली पर
परिंदे बैठते होंगे
चहचहाते होंगे
माँ चिड़िया
अपने बच्चो के लिए
तेरी ही शाख पे
बड़े जातां से
घोंसला बनती होगी
फिर कभी ...
किसी रोज़ ...
आंधी आई ..
घोंसला बिखरा
तिनका तिनका
टुकड़ा टुकड़ा
बच्चे जो अभी
घोंसलों मिएँ ही थे
अन्डो से निकले न थे
जिन्होंने
छानी हुई
दुपहरी नहीं देखी थी
किनके नन्हे
कोमल हाथों ने
सूरज की किरणों को
नहीं सहलाया था
जो कोहरे को जान न पाए थे
जो अभी भी
अपनी ही दुनिया में थे
बता उस आंधी में तेरा क्या हुआ
बोला वो
टुटा मैं
हाँ टूटा मैं
पर
माँ के आंसुओं के बाद.....

कभी यूँ भी आ....

कभी यूँ भी आ मेरी आँख में
की मेरी नज़र को खबर न हो ...
कभी यूँ भी आ मेरे ख्वाब में
की मेरे ज़हन को खबर न हो...
कभी यूँ भी आ मेरी रात में
की मेरे सहर को खबर न हो ...
कभी यूँ भी आ मेरे साथ में
की मेरे शहर को खबर न हो ...
कभी यूँ भी आ मेरे दिल में तू
की मेरी धड़कन को खबर न हो....
कभी यूँ भी आ मेरे पास तू
की मेरे अक्स को खबर न हो ....
कभी इस कदर आ बाहों में
की मेरी रूह को खबर न हो...
कभी आ ही जा मेरी चाह में
की मेरे इल्म को खबर न हो ....
कभी यूँ भी आ....
कभी यूँ भी आ....
कभी यूँ भी आ....

Saturday, March 12, 2011

बिलखती भूख ....

बिलखती भूख
जब अव्वाज़ देती
सिसकती सृष्टि
उसे आवाज़ देती
तू कौन है
तू कौन है
न जाने कितने तुझसे
फूटपाथ पर मौन है
बताया भूख ने
मैं कौन हूँ..
निगलती हूँ
जलाती हूँ
तभी तो
बिलखती भूख कहलाती हूँ
तपिश हूँ
अगन हूँ
धरा मैं
गगन हूँ
फटी तो निगल लूं
अगन वो जलन दूं
जलन- प्रज्वलन हूँ
मिटाती हूँ
रुलाती हूँ
तभी तो
बिलखती भूख कहलाती हूँ
बिलखती भूख कहलाती हूँ ...



Thursday, March 10, 2011

भूख की भट्टी..( फूटपाथिये के नाम )

तपा हूँ
हाँ
तपा हूँ
रोज़ भूख की भट्टी में
तपा हूँ रोज़
कभी कपडा गीला कर पेट पे बांधता
कभी मटका भर पानी पी जाता
चुप हो... पड़ा रहा
न जाने कब से मौन
क्या है ... क्या है ...
आखिर है ये कौन
हाँ फिर मटका भर पानी पी जाता
पर ये जलन
पानी से मिटती नहीं बढती जाती है..
ये हर घूँट पे भीतर और जलाती है
ये जलन - प्रज्वलन
केवल रोटी मांगती है
हाँ
भूख
निर्मम है ये
रोज़ जलाती है
कुत्तो से जूझकर आधा टुकड़ा रोटी पाया
वो भी किसी तीसरे कुत्ते के हाथ गंवाया
हाँ कुत्ते की ही तरह
कूकता रह गया
वह कूक थी या
करह मेरी समझ नहीं पाया
अँधियारा गह्तम से गहरा पाया
आँखों से दो रसझर बहे
जो खुरदुरे गालों से ढुलकते
जिस पर मिट्टी की एक परत है
मेरे मुह में आये
हाँ पता चला तब
पानी खारा होता है
जब भूख की भट्टी में तपता है ...
पता चला
भूक की भट्टी में क्या होता है ???
गाल-- खुरदुरे हो जाते हैं
करह-- कूक बन जाती है
पानी-- खारा हो जात है
अस्तित्व-- कुत्तो सा विलीन हो जाता है
तपा हूँ रोज़
भूख की भट्टी में
हाँ
तपा हूँ रोज़......
तपा हूँ रोज़ ......


मुट्ठी भर सपने .....

मुट्ठी भर सपने
अपनी जेब में लिए
हाँ
मुट्ठी भर सपने
अपनी जेब में लिए
निकल चूका हूँ
इन राहों पर
की न जाने कहाँ
टूट जायें
बिखर जायें
मेरे मुट्ठी भर सपने
सपने मेरे

सपना
हाँ
सपना था
घड़ा भर कंचे जोड़ने का
पेड़ों से आम तोड़ने का
पत्थर से गगन फोड़ने का
सपना था
नदी को पलट मोड़ने का
पतंग से व्योम नापने का
हवा से तेज़ भागने का
सपना था
छत से चाँद ताकने का
नभ पर तारे टांगने का
बारिश में भीग नाचने का
सपना था ...
क्यों
मुठी कुछ बड़ी हो गयी
नहीं
बस मुट्ठी भर सपने
संजोये बड़े मन से
की न जाने कब
टूट जायें
बिखर जायें
मेरे
अपने
मुठी भर सपने ,....

Thursday, November 11, 2010

जीवन की आपाधापी में .......

जीवन की आपाधापी में
हाँ जीवन की आपाधापी में
कहीं भूल चला खुद को
कहीं छोड़ चला सबको
जीवन की आपाधापी में

संजोये कितने सपने
न जाने कौन हैं अपने
लगे हर कोई पराया
था जो मेरा अपना
उसे हर रोज़ गंवाया
जावन की आपाधापी में

न होती आँखें अब नाम
क्यों होते सपने अब कम
न झरते नैनोके बादल
क्यों पिघला आँख का काजल
जीवन की आपाधापी में

न मेरा हाथी घोडा
न मेरा फूटा फोड़ा
वही नानी की कहानी
वही मदमस्त रवानी
वो कितनी हाथापाई
वो मेरा दही मलाई
जीवन की आपाधापी में
कहीं भूल चला खुद को
कहीं छोड़ चला सबको
जीवन की आपाधापी में


Wednesday, September 29, 2010

बहुत दिन बाद ....

बहुत दीन बाद
थका हुआ सा मैं
जब कमरे लौटा
धूल जमी थी
डायरी पर
देखी मैंने
देखा मैंने धूल जमी थी
सपनो पे भी ..
मैंने देखा धूल जमी थी
आँखों पे भी ..
लिखना मानो भूल चूका हूँ
एक कलम थी साथ में रखी
जिसकी श्याही
भूल चुकी है लिखना -पढना
फिर सोचा
गुमसुम बैठा मैं
लिखने को मन था आतुर
सोच फिर क्या लिखू
खुद को थोडा समझाया
मन को अपने बहलाया
फिर भी मैंने कलम उठाया
श्याही को चलना सिखलाया
धूल झाड़ी हर जगह की
सपनो पे भी
लिखने फिर से बैठ गया
कुछ नया
क्या लिखता मैं समझ न आया
कलम को सिरहाने रख आया
डायरी फिर से धूल है खाती
कलम खुद को तनहा पाती
मैं भी फिर से भूल गया हूँ
लिखना पढना