अजब घुटन ये
वायु.....
नभ......
जल थल और सब हैं
फिर भी मैं
क्यों घुट रहा हूँ
सब कुछ नीरव
सब कुछ नीरस
सब तटस्थ
सब हैं अब व्यस्त
फिर भी मैं क्यों
घुट रहा हूँ
शिखर पर खडा
जब नीचे
खड़े बित्ते भर सा
सबको देखता
खुद को बड़ा तो पाता
पर
जब मैं नीचे आता
डरता मैं
मन घबराता
और......
गहन अंधकार में
खुद को अकेला पाता
प्रशन यही है अब तक
सब हैं मेरे साथ
फिर भी मैं क्यों
क्यों मैं ही घुट रहा हूँ
शायद
मेरी यही
है नियति
हाँ अब मैं
खुद ख़ुशी से घुट रहा हूँ...
aakhir aap ghut kyun rahe hain sarkar??
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