मित्र
जो मुझको कहते
पल पल हर पल
मुझको ही क्यों डसते
साँप वो ज़हरीले
पथ पर आते
मीठा ज़हर वो उगलते
फिर मुझको
पुनः
झकझोरते वो
की तुम
"मेरे मित्र हो"
मन
ये मेरा
फिर से रीझ जाता
फिर मैं ख़ुद को
उन्ही संवादों के बीच खड़ा पाटा
और
सभी "मित्रो" के बीच
ख़ुद को मैं "शत्रु" बना पाता॥
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