Sunday, July 18, 2010

बाहर और भीतर .....

वो रोज़ मरती थी
बाहर और भीतर
झूझती खुद से
और फिर थक जाती
फिर भी रोज़
सुबह उठ जाती
जब सूरज भी अलसाया रहता था
नभ भी तारों की चादर ताने
सोया करता था
तब से ले कर
रात्रि के प्रथम प्रहर तक
रोज़ मरती थी वो
बाहर और भीतर
टूटा करती थी
कतरा कतरा
समेटती थी खुद को
फिर से धौकनी उठाये
चूल्हा फूकती
आटा गूंथती
आँगन लीपती
चावल बीनती
थी वो
थक कर नहीं बैठती थी
कभी भी
हाँ कभी भी
मैंने नहीं देखा
पर मैंने देखा की
मेरे उठने से पहले
परछाई उसकी
आँगन में टहले
सोने के बाद भी मेरे
रुकते न थे उसके फेरे
फिर कब सोती थी वो
आखिर कब रोती थी वो
रोज़ बस
मरती थी बाहर और भीतर
उंगली पर रोज़
गिनती थे दिन
और
रात
वो तो होती ही न थी उसकी
पर
उस रात
ख़तम हो गए उसके दिन
और
उसकी बाहर और भीतर की जंग
बहा बस थोडा लाल रंग
बाहर कुछ लोग
भीतर थी वो
मर गयी
भीतर ही भीतर ....
भीतर ही भीतर ....

3 comments:

  1. सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।

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  2. realistic analysis of quite a few women in our country.....
    so apt, so touching....
    gr8!

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  3. What a succinct description of the plight of a typical housewife...kudos to u!!

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