Thursday, March 10, 2011

भूख की भट्टी..( फूटपाथिये के नाम )

तपा हूँ
हाँ
तपा हूँ
रोज़ भूख की भट्टी में
तपा हूँ रोज़
कभी कपडा गीला कर पेट पे बांधता
कभी मटका भर पानी पी जाता
चुप हो... पड़ा रहा
न जाने कब से मौन
क्या है ... क्या है ...
आखिर है ये कौन
हाँ फिर मटका भर पानी पी जाता
पर ये जलन
पानी से मिटती नहीं बढती जाती है..
ये हर घूँट पे भीतर और जलाती है
ये जलन - प्रज्वलन
केवल रोटी मांगती है
हाँ
भूख
निर्मम है ये
रोज़ जलाती है
कुत्तो से जूझकर आधा टुकड़ा रोटी पाया
वो भी किसी तीसरे कुत्ते के हाथ गंवाया
हाँ कुत्ते की ही तरह
कूकता रह गया
वह कूक थी या
करह मेरी समझ नहीं पाया
अँधियारा गह्तम से गहरा पाया
आँखों से दो रसझर बहे
जो खुरदुरे गालों से ढुलकते
जिस पर मिट्टी की एक परत है
मेरे मुह में आये
हाँ पता चला तब
पानी खारा होता है
जब भूख की भट्टी में तपता है ...
पता चला
भूक की भट्टी में क्या होता है ???
गाल-- खुरदुरे हो जाते हैं
करह-- कूक बन जाती है
पानी-- खारा हो जात है
अस्तित्व-- कुत्तो सा विलीन हो जाता है
तपा हूँ रोज़
भूख की भट्टी में
हाँ
तपा हूँ रोज़......
तपा हूँ रोज़ ......


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