Tuesday, December 15, 2009

प्यास..












रेत
मुझे भावुक लगती है
मर्म से पूर्ण
हवा में बहती
मरुस्थली धरती पर
जीवन को निष्क्रिय करती
बिच्छु और कंटीली झाड़ियाँ
व्वो टीले वो पहाड़ियां
वो ऊंट तपती रेत पे चलता
प्यासा राही ठुक पी गले को मलता
टुटा धैर्य अब उसका
दूर कहीं पानी का स्रोत दिखा
पास गया तो रेत का टीला
फिर कुछ दूर पर कुछ था गीला
पुनः गया फिर रेत का टीला
बौराया
सूरज का ताप
लगे
पानी बनता भाप
बस नहीं बचा अब धैर्य
निकला चाक़ू
किया ऊंट के गले पर वार
अब बुझ गयी थी उसकी
" प्यास" ॥

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