Saturday, December 26, 2009

रात डेढ़ बजे

मेरी रातें छोटी
दिन कम होने लगे थे
नींद कम आती थी
रात
गेहरी
कुछ सोचते बीत जाती थी
कभी सुनता
सन्नाटे का शोर
कुछ कहता था
अव्वाजें बहुत हैं
सोने नहीं देती
आँखें मेरी चौकन्नी होती
हर आहट पर उठ जाता मैं
कुछ न पाता तो घबराता मैं
शायद
स्थिर नहीं हूँ
ठहराव चाहिए
ज़रूरी है
पर
बहते रहने को मन था ॥

12 comments:

  1. wow,,, samajh aa gayi deep thinking

    ReplyDelete
  2. भाव अच्छे हैं. आप छंद मुक्त
    कविता लिखें. निखार आ जायेगा.
    लेखन नियमित रखें, शुभकामनायें !!

    ReplyDelete
  3. exactly, the heart must go on...

    ReplyDelete
  4. finally...something i can relate to... :-)

    ReplyDelete
  5. mjhe samajh hi nai ai :-( aisa lag raha hai koi life ki bhagdaud se pareshan hai n needs a break. bt break lene ka time nahi hai :-)

    ReplyDelete